NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 13 पंडित-चंद्रधर-शर्मा-गुलेरी Sumirini ke man ke


NCERT Solutions for Class 12 Hindi Antra Chapter 13 पंडित-चंद्रधर-शर्मा-गुलेरी Sumirini ke man ke – Free PDF download

Chapter Nameपंडित-चंद्रधर-शर्मा-गुलेरी
Sumirini ke man ke
ChapterChapter 13
ClassClass 12
SubjectHindi Antra NCERT Solutions
TextBookNCERT
BoardCBSE / State Boards
CategoryCBSE NCERT Solutions


CBSE Class 12 Hindi Antra
NCERT Solutions
Chapter 13 पंडित-चंद्रधर-शर्मा-गुलेरी Sumirini ke man ke



Question 1:
बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के कौन-कौन से प्रश्न पूछे गए? 

ANSWER: 

बालक से जितने भी प्रश्न पूछे गए वे सभी प्रश्न उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के थे। जैसे- धर्म के लक्षण, रसों के नाम तथा उनके उदाहरण, पानी के चार डिग्री के नीचे ठंड फैल जाने के बाद भी मछलियाँ कैसे जिंदा रहती हैं तथा चंद्रग्रहण होने का वैज्ञानिक इत्यादि प्रश्न उसकी उम्र की तुलना में बहुत अधिक गंभीर थे।

Question 2:
बालक ने क्यों कहा कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा? 

ANSWER: 

बालक ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि उसके पिता ने उसे इस प्रकार का उत्तर रटा रखा था। यह एक संवाद है, जिसे बोलने वाला व्यक्ति वाह! वाह! पाता है। पिता ने सोचा होगा कि इस प्रकार का संवाद सिखाकर उसकी योग्यता पर श्रेष्ठता का ठप्पा लग जाएगा। परन्तु इस प्रकार बुलवाकर वह बच्चे के बालपन को समाप्त करने का प्रयास कर रहे थे। पिता को सामाजिक प्रतिष्ठा बच्चे के बालपन से अधिक प्रिय थी।

Question 3:
बालक द्वारा इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने सुख की साँस क्यों भरी? 

ANSWER: 

लेखक का जब बालक से परिचय हुआ, तो उसे वह सामान्य बच्चों जैसा ही लगा। परन्तु उसका अपनी उम्र से अधिक गंभीर विषयों पर उत्तर देना, लेखक को दुखी कर गया। वह समझ गया कि पिता द्वारा उसकी योग्यता को इतना अधिक उभारा गया है कि इसमें बालक का बालपन तथा बालमन दम तोड़ चुका है। पिता ने उसे उम्र से अधिक विद्वान बनाने का प्रयास किया है, जिसमें एक बालक पिसकर रह गया है। एक बालक के विकास के लिए शिक्षा बहुत आवश्यक है। परन्तु वह खेलकूद और जीवन के छोटे-छोटे सुखों को छोड़कर उसी में घुल जाए, तो ऐसी स्थिति बच्चे और समाज के लिए सुखकारी नहीं है। इस तरह हम उसका बचपन समाप्त कर रहे हैं। लेखक के अनुसार पिता तथा उनके साथ बैठे लोग इस प्रयास में सफल भी हो गए थे। जब इनाम में बच्चे ने लड्डू माँगा, तो लेखक ने सुख की साँस भरी। एक बालक के लिए यही स्वाभाविक बात थी। उसे यही माँगना चाहिए था और उसने माँगा भी। उसे विश्वास हो गया कि पिता तथा अन्य लोग अपने इस प्रयास में सफल नहीं हो पाए हैं। अब भी बालक के अंदर विद्यमान उसका बचपन जिंदा है। वह अब भी अपनी उम्र से आगे नहीं निकला है। यह स्थिति लेखक के लिए सुखदायी थी।

 


Question 4:
बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटना अनुचित है, पाठ में ऐसा आभास किन स्थलों पर होता है कि उसकी प्रवृत्तियों का गला घोटा जाता है? 

ANSWER: 

सभा में बालक से बड़ों द्वारा बहुत ही गंभीर विषयों पर प्रश्न पूछे जाते हैं। बालक उन प्रश्नों का उत्तर देता है। बालक के हावभाव तथा व्यवहार से पता चलता है कि बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटना अनुचित है। निम्नलिखित स्थलों पर पता चलता है कि बालक की प्रवृत्तियों का गला घोटना अनुचित है।-

1.  जब आठ वर्ष के बालक को नुमाइश के लिए श्रीमान हादी के सम्मुख ले जाया गया।

2.  जब बालक को सभी लोग घेरकर ऐसे प्रश्नों के उत्तर पूछते हैं, जो उसकी उम्र के बालकों के लिए समझना ही कठिन है।

3. बालक इस प्रकार के प्रश्नों को सुनकर असहज हो जाता था। वह प्रश्नों का उत्तर देते हुए आँखों में नहीं झाँकता बल्कि जमीन पर नज़रे गडाए रहता है। उसका चेहरा पीला हो गया है और आखें भय के मारे सफ़ेद पड़ गई हैं। उसके चहरे पर कृत्रिम और स्वाभाविक भाव आते हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि वह स्वयं से लड़ रहा है।

4.  जब उससे इनाम माँगने के लिए कहा गया, तो  उससे लड्डू की अपेक्षा किसी और ही तरह के इनाम माँगने की बात सोची गई थी। जब उसने बाल प्रवृत्ति के अनुरूप इनाम माँगा, तो सभी बड़ों की आँखें बुझ गई।


Question 5:
“बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह लड्डू की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट नहीं” कथन के आधार पर बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए। 

ANSWER: 

छोटे बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ होती हैं कि वह जिद्द करे, अन्य बच्चों के साथ खेले, ऐसे प्रश्न पूछे जो उसकी समझ से परे हों, खाने-पीने की वस्तुओं के प्रति आकर्षित और ललायित हो, रंगों से प्रेम करे, हरदम उछले-कूदे, अपने सम्मुख आने वाली हर वस्तु के प्रति जिज्ञासु हो, शरारतें करे इत्यादि। ये एक साधारण बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ होती हैं और यदि ये प्रवृत्तियाँ न हो, तो चिंताजनक स्थिति मानी जाती है। वह उसके जीवन का आरंभिक समय है। पाठ में लेखक ने जिस बालक का उल्लेख किया है पिता ने उसकी इन प्रवृत्तियों को अपनी उच्चाकांशा के नीचे दबा दिया था। बालक की उम्र आठ वर्ष की थी। उसके अंदर अभी इतनी समझ विकसित नहीं हुई थी कि गंभीर विषयों को समझे। पिता द्वारा उसे यह सब रटवाया गया था। उसे इन सब बातों को रटवाने के लिए पिता ने बच्चे के बालमन को कितनी चोटें पहुँचायी होगी यह शोचनीय है। उनके इस प्रयास में बालक की बालसुलभ प्रवृत्तियों का ह्रास तो अवश्य हुआ होगा। परन्तु उसका लड्डू माँगना इस ओर संकेत करता है कि अब भी कहीं उसमें बालसुलभ प्रवृत्तियाँ विद्यमान थीं, जो उसे और बच्चों के समान ही बनाती थी। लेखक को विश्वास था कि अब भी बालक बचा हुआ है और प्रयास किया जाए, तो उसे उसके स्वाभाविक रूप में रखा जा सकता है। लेखक का यह कथन इसी ओर संकेत करता है।

Question 1:
लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए ‘घड़ी के पुर्ज़े’ का दृष्टांत क्यों दिया है? 

ANSWER: 

लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए घड़ी के पुर्ज़ें का दृष्टांत दिया है क्योंकि जिस तरह घड़ी की संरचना जटिल होती है, उसी प्रकार धर्म की सरंचना समझना भी जटिल है। हर मनुष्य घड़ी को खोल तो सकता है परन्तु उसे दोबारा जोड़ना उसके लिए संभव नहीं होता है। वह प्रयास तो कर सकता है परन्तु करता नहीं है। उसका मानना होता है कि वह ऐसा कर ही नहीं सकता है। ऐसे ही लोग प्रायः बिना धर्म को समझे, उसके जाल में उलझे रहते हैं क्योंकि उनके लिए धर्मगुरुओं ने इसे रहस्य बनाया हुआ है। वे इस रहस्य को जानने का प्रयास भी नहीं करते हैं और धर्मगुरुओं के हाथ की कटपुतली बने रहते हैं। उनका मानना होता है कि वे इसे समझने में असमर्थ हैं और केवल धर्मगुरुओं में ही इतना सामर्थ विद्यमान है। लेखक ने घड़ी के माध्यम से इन्हीं बातों पर प्रकाश डाला है। वह कहता है कि घड़ी को पहनने वाला अलग होता है और उसे ठीक करने वाला अलग, वैसे ही आज के समाज में धर्म को मानने वाले अलग हैं और उसके ठेकेदार अलग-अलग हैं। ऐसे ठेकेदार साधारण जन के लिए धर्म के कुछ नियम-कानून बना देते हैं। लोग बिना कुछ सोचे इसी में उलझे रहते हैं और इस तरह वे धर्मगुरुओं का पोषण करते रहते हैं। उन्हें धर्म को साधारण जन के लिए रहस्य जैसे बनाया हुआ है। घड़ी की जटिलता उसी रहस्य को दर्शाती है।

Question 2:
‘धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है।’ आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं? धर्म संबंधी अपने विचार व्यक्त कीजिए। 

ANSWER: 

यह बिलकुल भी सत्य नहीं है कि धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है। धर्म बाहरी रूप से जितना जटिल दिखता है, वह उतना नहीं है। धर्म वेदशास्त्रों के माध्यम से नहीं समझा जा सकता है बल्कि उसे व्यवहार में प्रयोग लाने से समझा जा सकेगा। यह भी निर्भर करता है कि लोग उसे किस प्रकार से व्यवहार में लाए। लोग वर्त-पूजा, नमाज़-रोज़े इत्यादि को धर्म मान लेते हैं और सारी उम्र इन्हीं नियमों में पड़े रहते हैं। परन्तु धर्म की परिधि बहुत सरल है। अपनी आँखों के आगे गलत होते मत देखो, सत्य का आचरण करो, बड़ों की सेवा करो, दीन-दुखियों की सहायता करो, मुसीबत में पड़े व्यक्ति को उससे बाहर निकालो, अन्याय का विरोध करना, न्याय का साथ देना धर्म है। चोरी करना, किसी को धोखा देना, झूठ बोलना, अन्याय करना, किसी को मार देना, किसी का अधिकार हड़प लेना, अपने स्वार्थों के लिए लोगों पर अत्याचार करना इत्यादि अधर्म कहलाता है। महाभारत में श्रीकृष्ण ने पांडव का साथ देने को धर्म का कहा था। उनके अनुसार कौरवों ने पांडवों का अधिकार लेकर अधर्म किया था। वे उसके विरोध में खड़े हुए। उन्होंने कहा कि यदि धर्म की रक्षा के लिए भाई-भाई के विरूद्ध भी खड़ा हो, तो वह अधर्म नहीं कहलाएगा।

Question 3:
घड़ी समय का ज्ञान कराती है। क्या धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार अपने समय का बोध नहीं कराते? 

ANSWER: 

घड़ी का कार्य ही समय का ज्ञान करवाना है। वह समय बताती है इसलिए मूल्यवान है। लोग तभी उसका प्रयोग करते हैं। यदि घड़ी समय दिखाना बंद कर दे, तो लोगों के लिए घड़ी का मूल्य ही समाप्त हो जाए। इसी प्रकार धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार अपने समय का बोध कराते हैं। मनुष्य के आरंभिक समय में धर्म का नामो-निशान नहीं था। अतः उसके चिह्न हमें नहीं मिलते। परन्तु जैसे-जैसे मानव सभ्यता ने विकास किया धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार उत्पन्न होने लगे। धर्म का अर्थ हर संप्रदाय ने अलग-अलग रूप में किया। यह परोपकार तथा मानवता पर आधारित था लेकिन इसमें आंडबरों ने स्थान बनाना आरंभ कर दिया। धर्म को अस्तित्व में लाया गया ताकि मनुष्य को बुराई की तरफ जाने से रोक जा सके। इसके साथ ही निराशा के समय में जीवन के प्रति आस्था और विश्वास उत्पन्न किया जा सके। पूरे विश्व में विभिन्न लोगों को मानने वाले लोग विद्यमान है। भारत में हिन्दु, जैन, बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम जाने कितने ही धर्म हैं। ये सब इस बात का प्रतीक है कि उस समय में लोगों ने इसे क्यों स्वीकारा और क्यों इसका उद्भव और विकास हुआ। हर समय में अलग-लग धर्माचार्य हुए हैं, उन्होंने इसकी अपने-अपने तरीकों से व्याख्या की है और इसे परिभाषित भी किया है। लोग इसे अपनी समझ के अनुसार अलग-अलग दिशाओं में ले जाते हैं। उस समय इनका लोगों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और यही कारण है कि हम इस बात का समर्थन करते हैं।

Question 4:
घड़ीसाज़ी का इम्तहान पास करने से लेखक का क्या तात्पर्य है? 

ANSWER: 

जो व्यक्ति घड़ी के विषय में हर प्रकार की जानकारी प्राप्त कर चुका होता है। उसे बड़ी सरलतापूर्वक खोल तथा वापस जोड़ सकता है, वही घड़ीसाज़ी का इम्तहान पास करता है। इस इम्तहान को पास करने के बाद वह घड़ीसाज़ कहलाता है। ऐसे मनुष्य को यदि घड़ी ठीक करने को दी जाए, तो वह उसे ठीक करने का समार्थ्य रखता है। लोगों को उस पर पूर्ण विश्वास होता है। लेखक घड़ीसाज़ के द्वारा धर्म से जुड़े रहस्यों को उजागर करना चाहता है। उसका मानना है यदि हम धर्म से संबंधित छोटे-बड़े पहलुओं पर गौर करें, तो हम धर्मगुरू तो नहीं बन सकते परन्तु उसकी जटिलता को समाप्त अवश्य कर सकते हैं। इस प्रकार हम धर्म के नाम पर मूर्ख नहीं बनाए जा सकते हैं। हमें घड़ीसाज़ की तरह ही घड़ी के विषय में जानकारी हासिल करनी चाहिए और स्वयं को धोखे से बचाना चाहिए। लेखक इसलिए घड़ीसाज़ी के इम्तहान की बात करता है।

Question 5:
धर्म अगर कुछ विशेष लोगों वेदशास्त्र, धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है तो आम आदमी और समाज का उससे क्या संबंध होगा? अपनी राय लिखिए। 

ANSWER: 

अगर धर्म कुछ विशेष लोगों वेदशास्त्र, धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है, तो आम आदमी और समाज उसकी कठपुतली बनकर रह जाएगा। वे उनके स्वार्थ की पूर्ति करने का मार्ग होगा और उसे वे समय-समय पर चूसते रहेंगे। इस तरह समाज और आदमी से इनका संबंध शोषक और शोषण का रह जाएगा। ये शोषक बनकर समाज में अराजकता फैलाएँगे। ‘धर्म’ आदमी और समाज की पहुँच से दूर हो जाएगा। धर्म उनके लिए ऐसी मज़बूरी बनकर रह जाएगा और इसमें विभिन्न तरह के आडंबर विद्यमान हो जाएँगे। भारत के लोग बहुत समय पहले इन्हीं कुरीतियों से ग्रस्त थे। अगर दोबारा ऐसा हो जाता है, तो उसी प्रकार की विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाएँगी और लोगों का जीवन दुर्भर हो जाएगा। इस तरह समाज का रूप विकृत हो जाएगा।

Question 6: 

‘जहाँ धर्म पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का एकाधिकार धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है वहीं धर्म का आम आदमी से संबंध उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है।’ तर्क सहित व्याख्या कीजिए।
ANSWER: 

यह कथन सर्वथा उपयुक्त है कि धर्म पर कुछ मुट्ठी भर लोगों का एकाधिकार हो जाए, तो यह स्थिति उसे संकुचित अर्थ प्रदान करती है। क्योंकि ये लोग धर्म को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ देते हैं। ये इसे इतना जटिल बना देते हैं कि लोग इसमें उलझकर रह जाते हैं। आज़ादी से पहले के भारत में कुछ इसी तरह की जटिलता विद्यमान थी। यही कारण था कि भारत लंबे समय तक गुलाम रहा और इसमें ऊँच-नीच, छूआछूत जैसी कुरीतियाँ घर कर गईं। पूजा-पाठ के आंडबरों में पड़कर लोगों ने मानवता से भी नाता तोड़ लिया था। आज भी समाज में ऐसी कुरीतियाँ विद्यमान है परन्तु इस स्थिति में पहले की अपेक्षा बहुत सुधार हुआ है। आज धर्म का अर्थ लोगों ने बहुत हद तक समझ लिया है। वह आम आदमी से जुड़ गया है। वह स्वयं को इन आडंबरों से मुक्त करने लगे हैं। ईश्वर को वे स्वयं की शक्ति मानते हैं और उसे पूजा-पाठ में ढूँढने के स्थान पर अपने परिश्रम और मानवता की भलाई करने में ढूँढने का प्रयास कर रहे हैं। यही कारण है कि आज मनुष्य और समाज की स्थिति में बहुत सुधार हुआ है, वहीं धर्म की धारणाओं, मान्यताओं तथा परंपराओं में बदलाव हुए हैं। इसी कारण जहाँ समाज का स्तर सुधारा है, वहीं उसका भी विकास हुआ है। आज का समाज और मानव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

Question 7: 

निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) ‘वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्ज़े जानें, तुम्हें इससे क्या?’
(ख) ‘अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाज़ी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।’
(ग) ‘हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्ज़े सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।’
ANSWER: 

(क) आज के समय में धर्मगुरूओं ने धर्म के बारे जानने की ज़िम्मेदारी स्वयं ले ली है। इसके बाद वह अपनी सुविधा अनुसार हमें इसके विषय में बताते हैं। इस तरह हमारे लिए वे उस घड़ीसाज़ के समान बन जाते हैं, जो घड़ी को सही कर सकता है। यह सही नहीं है। लेखक लोगों को कहता है कि हमें भी इस विषय में जानना चाहिए। धर्म किसी एक की जागीर नहीं है। हमें इस प्रकार के धर्मगुरूओं को बिना मतलब के महत्व देने से बचना चाहिए।
(ख) तुम अपनी घड़ी को किसी अनाड़ी व्यक्ति को देने से डरते हो। तुम्हारे इस इनकार को समझा जा सकता है। जो व्यक्ति इस विषय पर सब सीख कर आया है, जो इसका जानकार है, उसे भी तुम अपनी घड़ी में हाथ लगाने नहीं देते हो। यह बात समझ में नहीं आती है। अर्थात लेखक कहता है कि जो व्यक्ति मूर्ख है, उसे तुम धर्म के बारे में समझाने या बताने से मना करते हो। अन्य और कोई व्यक्ति इस विषय में जानता है, जिसने इस विषय में जानकारी हासिल की है, तुम उसे कुछ क्यों नहीं बताने देते हो।
(ग) इसका आशय है कि तुम वेद-वेदांतरों की बात करते हो, संस्कृति-सभ्यता की बात करते हो, धर्म की बात करते हो मगर तुम इस विषय पर कुछ नहीं जानते हो। तुम वेद-वेदांतरों में विद्यमान ज्ञान के रक्षक बनकर लोगों को बेहकाते हो मगर तुम्हें स्वयं इसके बारे में कुछ नहीं पता है। यदि कोई इसे के बारे में समझना तथा जानना चाहता है, तुम उसे समझने नहीं देते। अतः इसमें हमें सुधार करना चाहिए। यह स्थिति मूर्खता से भरी है।

Question 1:
वैदिककाल में हिंदुओं में कैसी लौटरी चलती थी जिसका ज़िक्र लेखक ने किया है। 

ANSWER: 

उस काल में एक हिंदु युवक विवाह करने हेतु युवती के घर जाता था। यह प्रथा लाटरी के समान थी। वह अपने साथ सात ढेले ले जाता था और युवती के सम्मुख रखकर उससे चुनने के लिए कहता था। इन ढेलों की मिट्टी अलग-अलग तरह की होती थी। इस विषय में केवल युवक को ही ज्ञान होता था कि मिट्टी कौन-से स्थान से लायी गई है। इनमें मसान, खेत, वेदी, चौराहे तथा गौशाला की मिट्टियाँ सम्मिलित हुआ करती थी। हर मिट्टी के ढेले का अपना अर्थ हुआ करता था। यदि युवती गौशाला से लायी मिट्टी का ढेला उठाती थी, तो उससे जन्म लेने वाला पुत्र पशुओं से धनवान माना जाता था। वेदी की मिट्टी से बने ढेले को चुनने वाली युवती से उत्पन्न पुत्र विद्वान बनेगा इस तरह की मान्यता थी। मसान की मिट्टी से बने ढेले को चुनना अमंगल का प्रतीक माना जाता था। अतः हर ढेले के साथ एक मान्यता जुड़ी होती थी। यह प्रथा एक लाटरी के समान थी। जिसने सही ढेला उठा लिया, उसे दुल्हन या वर प्राप्त हो गया और जिसने गलत ढेला उठा लिया, उसके हाथ निराशा लगती थी। लेखक इसी कारण से इस प्रथा को लाटरी से जोड़ दिया है।

Question 2:
‘दुर्लभ बंधु’ की पेटियों की कथा लिखिए। 

ANSWER: 

दुर्लभ बंधु एक नाटक है। इसका पात्र पुरश्री है। उसके सामने तीन पेटियाँ रख दी जाती हैं।  प्रत्येक पेटी अलग-अलग धातु की बनी होती है। इसमें से एक सोना, दूसरी चाँदी तथा तीसरी लोहे से बनी होती है। प्रत्येक व्यक्ति को यह स्वतंत्रता है कि वह अपनी मनपसंद पेटी को चूने। अकड़बाज़ नामक व्यक्ति सोने की पेटी को चुनता है तथा वह खाली हाथ वापस जाता है। एक अन्य व्यक्ति चाँदी की पेटी चुनता है और लोभ के कारण उसे भी लौटना पड़ता है। इसके विपरीत जो सच्चा और परिश्रमी होता है, वह लोहे की पेटी चुनता है। इसके फलस्वरूप उसे घुड़दौड़ में प्रथम पुरस्कार प्राप्त होता है।

Question 3:
जीवन साथी का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के कौन-कौन से फल प्राप्त होते हैं। 

ANSWER: 

ढेला चुनना प्राचीन समय की प्रथा है। इसमें वर या लड़का अपने साथ मिट्टी के ढेले लाता है। हर ढेले की मिट्टी अलग-अलग स्थानों से लायी जाती थी। माना जाता था कि दिए गए अलग-अलग ढेलों में से लड़की जो भी ढेला उठाएगी, उस ढेले की मिट्टी के गुणधर्म के अनुसार वैसी ही संतान प्राप्त होगी। जैसे वेदी का ढेला चुनने से विद्वान पुत्र की प्राप्ति होगी। गौशाला की मिट्टी से बनाए गए ढेले को चुनने से संतान पशुधन से युक्त होगा और यदि खेत की मिट्टी से बने ढेले को चुन लिया जाए, तो कहने ही क्या होने वाली संतान भविष्य में जंमीदार बनेगी। इस प्रकार के फायदे देखकर ही यह प्रथा लंबे समय तक समाज में कायम रही।
इससे यह फल प्राप्त होते होगें।-
1. मनोवांछित संतान न मिलने पर पछताना पड़ता होगा।
2. अच्छी लड़कियाँ इस प्रथा के कारण हाथ से निकल जाती होगी।
3. अपनी मूर्खता समझ में आती होगी।

Question 4:
मिट्टी के ढेलों के संदर्भ में कबीर की साखी की व्याख्या कीजिए- 

पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार।

इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार।।

ANSWER: 

मिट्टी के ढेलों से यदि मनुष्य को उसकी मनोवांछित संतान प्राप्ति होती है, तो फिर कहने ही क्या थे? मनुष्य को कभी ज्ञान प्राप्त करने की  आवश्यकता ही नहीं होती या उसे परिश्रम ही नहीं करना पड़ता। कबीर ने सही कहा है कि यदि पत्थर पूजकर हरि प्राप्त हो जाते हैं, तो मैं पहाड़ पूजता। क्योंकि पहाड़ पूजने से क्या पता भगवान शीघ्र ही प्राप्त हो जाते। उनके अनुसार इससे तो मैं चक्की को पूजना उचित मानता हूँ क्योंकि वह सारे संसार का पेट भरने का कार्य करती है। लेखक इस दोहे के माध्यम से मनुष्य पर व्यंग्य करता है। उसके अनुसार मनुष्य को भविष्य का निर्धारण मिट्टी के ढेलों के आधार पर करना मूर्खता है। ढेले किसी का भाग्य बना नहीं सकते हैं। अलबत्ता उसे ऐसी स्थिति में अवश्य डाल सकते हैं, जहाँ उसे जीवनभर के लिए पछताना पड़े। लेखक की बात यह दोहा बहुत ही अच्छी तरह से स्पष्ट करता है।

 


Question 5:
निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) ‘अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों करोड़ों कोस दूर बैठे बड़े-बड़े मट्टी और आग के ढेलों-मंगल, शनिश्चर और बृहस्पति की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है।’
(ख) ‘आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेज पिंड से।’ 

ANSWER: 

(क) इन पंक्तियों पर लेखक भारतीय संस्कृति में विद्यमान आडंबरों पर चोट करता है। उसके अनुसार हम अपने द्वारा चुने गए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करने को बुरा मानते हैं। यह कार्य तो हमने स्वयं किया होता है। यदि यह बात बुरी है, तो हम ग्रहों की चाल के अनुसार अपने जीवन को जोड़े देते हैं, तो इसे सही क्यों कहा जाए? भाव यह है कि जिन ग्रह-नक्षत्रों को हमने देखा ही नहीं है। उनकी चाल के अनुसार अपने जीवन का निर्धारण करना सबसे बड़ी मूर्खता है। अतः यदि हम एक बात को गलत कहते हैं, तो दूसरी बात अपने आप गलत सिद्ध हो जाती है।
(ख) यह बात वात्स्यायन ने कही थी। उनके अनुसार जो वस्तु हमारे पास इस समय विद्यमान है, हमें उसे ही सही कहना चाहिए। हमारे द्वारा आने वाले कल में या बीते कल में विद्यमान वस्तु को सही कहना मूर्खता है। कल मोहरे सोने की थी या चाँदी थी कि वह बात हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है कि आज हमारे हाथ में पैसा है। हमारे वर्तमान में जो पैसा हमारे पास है, वह महत्वपूर्ण होना चाहिए। अतः यदि हम आँखों देखे ढेले को सच मानते हैं, तो यही सही है। लाखों दूर स्थित पिंड पर हमें विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि हमने उसे देखा ही नहीं है।

Question 1:
बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विकास में ‘रटना’ बाधक है- कक्षा में संवाद कीजिए। 

ANSWER: 

बालक की स्वाभाविक प्रृवत्तियों के  विकास में रटना बाधक है। रटी हुई अध्ययन सामग्री कुछ समय में दिमाग से निकल जाती है। परन्तु जिसको अध्ययन करके समझा जाए और ध्यानपूर्वक पढ़ा जाए, वह जानकारी लंबे समय तक याद रह पाती है। रटने से बच्चा सीखता नहीं है। वह सभी विषयों की जानकारी का गहराई से अध्ययन नहीं करता। परिणाम वह बस तोते के समान बन जाता है। चीज़ों के पीछे छिपी गहराई उसे स्पष्ट नहीं हो पाती। वह तो बस रटकर ही अपनी जिम्मेदारियों को पूर्ण कर देता है। जैसे गणित में यदि रटकर जाया जाए, तो प्रश्न हल नहीं किए जा सकते। जब तक उनका अभ्यास न किया जाए और उसके पीछे छिपे समीकरण को हल करना नहीं सीखा जाए, तब तक गणित अनबुझ पहेली के समान ही होता है। ऐसे ही विज्ञान अन्य विषयों में है। इसमें बच्चा अपनी बौद्धिक क्षमता का विकास नहीं करता मात्र जानकारियाँ रट लेता है। हम जितना मस्तिष्क से काम लेते हैं, वह उतना ही विकसित होता है। उसका विषय क्षेत्र बढ़ता नहीं है। अतः चाहिए कि रटने के स्थान पर समझने का प्रयास करें और विचार-विमर्श करके ही अध्ययन करें।

Question 2:
ज्ञान के क्षेत्र में ‘रटने’ का निषेध है किंतु क्या आप रटने में विश्वास करते हैं। अपने विचार प्रकट कीजिए। 

ANSWER: 

यह बात पूर्णतः सत्य है कि ज्ञान के क्षेत्र में रटने का निषेध है। मैं भी पूर्णता इस पर विश्वास करता हूँ। हमें ज्ञान प्राप्त करने के लिए रटना नहीं चाहिए। यदि सच्चा ज्ञान प्राप्त  करना है, तो रटने को रोकना पड़ेगा। उस विषय को समझना, जानना तथा उसके बारे में विचार-विमर्श करना पड़ेगा। उससे संबंधित पहलुओं पर गौर करना पड़ेगा। यदि कुछ समझ न आए, तो अपने अध्यापकों या परिवारजनों से सहायता लेनी पड़ेगी। तब ही हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। हम यदि रटते हैं, तो वह ज्ञान प्राप्त करने की खानापूर्ति होगी। उसे ज्ञान प्राप्त करना नहीं कहा जाएगा। इस तरह से ज्ञान प्राप्त किया ही नहीं जा सकता है।

Question 1:
कक्षा में धर्म संसद का आयोजन कीजिए। 

ANSWER:
विद्यालय में यह कार्य छात्र स्वयं कीजिए। 


Question 2:
धर्म संबंधी अपनी मान्यता पर लेख/निबंध लिखिए। 

ANSWER: 

धर्म शब्द को लेकर लोगों में रूढ़िवादिता का रुख प्राय: देखने को मिलता है। लोग धर्म के प्रति कट्टर होते हैं। उनके धर्म के विषय में कोई मज़ाक भी कर ले, तो मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। परन्तु इसके विपरीत हकीकत कुछ और ही है। उनसे यदि पूछा जाए कि धर्म की परिभाषा क्या है, तो बगलें झाँकने लगते हैं। आज धर्म की सीमा पूजा-पाठ, नमाज, वर्त-रोज़े, हज तथा तीर्थयात्रा तक सिमटकर रह गई है। लोगों को वही धर्म नज़र आता है। उसे ही सब मानकर वह दूसरे लोगों के विरोधी हो जाते हैं और साप्रंदायिकता अलगाव तथा धार्मिक भेदभाव को जन्म दे देते हैं।
एक शिशु को बड़े होने तक हर तरह के संस्कार सिखाए जाते हैं। उसे धार्मिक होना सिखाया जाता है। परन्तु धर्म का अर्थ कहीं पीछे छोड़ दिया जाता है। इस शब्द का अर्थ दिखने में जितना पेचीदा है, उतना ही सरल है। परेशानी में पड़े किसी मनुष्य की सहायता करना, दीन-दुखियों की सेवा करना, परोपकार करना, गरीब को खाना खिलाना, सत्य के मार्ग पर चलना, अन्याय का विरोध करना इत्यादि बातें ही मनुष्य का धर्म है। परन्तु हम जीवन में इस सबको छोड़कर बेकार के आंडबरों में पड़कर मानवता से विमुख हो रहे हैं।
मेरा मानना है, जो मनुष्य किसी असहाय को सिर्फ इसलिए छोड़कर आगे बढ़ जाता है कि यह मेरा काम नहीं है, मैं किसी मुसीबत में फंसना नहीं चाहता या मेरे पास समय नहीं है, वही मनुष्य अधर्मी कहलाने योग्य है। हम दस हट्टे-कट्टे लोगों को धर्म के नाम पर या दान के नाम पर कपड़े या भोजन बाँटते हैं और एक मुसीबत में पड़े व्यक्ति को छोड़कर निकल जाते हैं, तो यह धर्म नहीं है। ये अन्याय है और यही अधर्म है। 

मैंने सदैव ही धर्म के विषय में समझने का प्रयास किया और पाया कि असहायों की मदद करने में जो सच्चा सुख है, वह पुजा-पाठ, यात्रा तथा दान करने में नहीं है। महाभारत का युद्ध भी धर्म और अधर्म का युद्ध था। कौरवों ने जो किया वह न्यायसंगत नहीं था। पांडवों का राज्य हड़प लेना और उन्हें अपमानित तथा मारने का प्रयास करना भी अधर्म ही था। यही कारण था कि श्रीकृष्ण ने पांडवों का साथ दिया। उन्होंने धर्म की रक्षा की। परन्तु इसे किसी संप्रदाय से जोड़ना अनुचित है।


Question 3:
‘धर्म का रहस्य जानना सिर्फ़ धर्माचार्यों का काम नहीं, कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस रहस्य को जानने की कोशिश कर सकता है, अपनी राय दे सकता है’- टिप्पणी कीजिए। 

ANSWER: 

‘धर्म का रहस्य जानना सिर्फ़ धर्माचार्यों का काम नहीं, कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस रहस्य को जानने की कोशिश कर सकता है, अपनी राय दे सकता है।’- यह कथन बिलकुल सही है। धर्म इतना रहस्यमय नहीं है कि इसे साधारण जन समझने में असमर्थ हो। धर्म की बहुत सीधी सी परिभाषा है। इसे धर्माचार्यों ने जटिल बना दिया है। इसकी कहानियों को गलत अर्थ देकर वे लोगों को भ्रमित करते हैं। इस तरह साधारण जन समझ लेते हैं कि धर्म उनके समझने के लिए नहीं बना है। अतः धर्म को समझने के लिए वे धर्माचार्यों या धर्मगुरूओं का सहारा लेते हैं। 

इसके विपरीत धर्म बहुत ही सरल है। मानवता धर्म की सही परिभाषा है। मनुष्य का कार्य है कि वह प्रत्येक जीव-जन्तु, सभी प्राणियों  के लिए दया भाव रखे, किसी को अपने स्वार्थ के लिए दुखी न करे, यही धर्म है। महाभारत में इसकी बहुत ही सरल व्याख्या मिलती है। कृष्ण ने दुर्योधन को अधर्मी कहा है और पांडवों को धर्म का रक्षक कहा है। यदि हम दुर्योधन के कार्यों पर दृष्टि डालें तो उसने जितने भी कार्य किए वे मानवता के नाम पर कलंक थे। अतः यह कहानी हमें धर्म की सरल परिभाषा प्रदान करती है। फिर हम क्यों धर्म को समझने के लिए किसी का सहारा लेते हैं। हमें स्वयं इसे समझना चाहिए। हमें स्वयं इसे जानना चाहिए। उसके बाद जो सत्य सामने आएगा, वह हमारे लिए महत्वपूर्ण है।


Question 1:
समाज में धर्म संबंधी अंधविश्वास पूरी तरह व्याप्त है। वैज्ञानिक प्रगति के संदर्भ में धर्म, विश्वास और आस्था पर निबंध लिखिए। 

ANSWER: 

मनुष्य पैदा होता है, तो धर्म उसके साथ रहता है। धर्म का हमारे जीवन से महत्वपूर्ण रिश्ता है। हम यह नहीं सोचते हैं कि धर्म क्या है तथा इसका क्या उद्देश्य है? इन प्रश्नों को जाने का प्रयास ही नहीं करते हैं। हमने धर्म से संबंधित ऐसे अंधविश्वास पाल लिए हैं कि जो हमें उससे आगे सोचने ही नहीं देते है। समय बदल रहा है हमारे पास वैज्ञानिक दृष्टिकोण आ गया है। लेकिन इस दृष्टिकोण को लोग त्याग देते हैं। उनके लिए विज्ञान और धर्म दो अलग-अलग राहें। इन्हें आपस में जोड़ देना उचित नहीं है। इसे प्रकृति से जुड़ी कोई घटना नहीं मानते हैं। बस धर्म में यदि चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण को लेकर कोई व्याख्या कर दी गई है, तो वही सत्य है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हम किनारा कर देते हैं। 

धर्म का संबंध हम ईश्वर से तथा उसके पूजने के तरीकों तक सीमित कर देते हैं। इसके अतिरिक्त हम मनुष्य तक को इस आधार पर विभाजित कर देते हैं। यही कारण है कि आज मनुष्य हिन्दू, मुस्लिम, सिख, बौद्ध इत्यादि धर्मों में विभाजित हो गया है। यह वह अंधविश्वास है, जो मनुष्य सदियों से पालता आया है और आगे भी इस पर विश्वास रखेगा। बात फिर इस प्रश्न पर आकर रूकती है कि धर्म है क्या?

मनुष्य द्वारा किसी की सहायता करना, किसी के दुख को कम करने के लिए किए गए कार्य आदि धर्म कहलाता है। यही सही अर्थों में धर्म है। धर्म यह नहीं है कि ईश्वर को पूजने के लिए कौन-से तरीके अपनाएँ जाएँ। पूजा पद्धति इसलिए अस्तित्व में आयी ताकि मनुष्य का ध्यान केंद्रित किया जा सके। उसे बुरे मार्ग में भटकने से रोका जाए। इस तरह से ईश्वर का डर दिखाकर उसे अधर्म करने से रोका गया। धीरे-धीरे कब इसमें अंधविश्वास का समावेश हो गया पता ही नहीं चला। हम धर्म से हट गए। पूजा पद्धति को धर्म मानने लगे। वर्त, पूजा आदि को बढ़ावा मिलने लगा। हम इन मान्यताओं पर इतना विश्वास करने लगे कि मानवता  से हमारा नाता टूट गया। हमारा विश्वास और आस्था मंदिर, मस्जिद तथा चर्च तक सीमित रह गई। हमने सड़क पर घायल पड़े व्यक्ति की ओर देखना धर्म नहीं समझा। हमने मंदिर पर दीपक जलाना अधिक धर्म समझा। यह धर्म नहीं है। मानवता सही अर्थों में धर्म है।

हमारे पूजनीय पुरुषों ने मनुष्य को बुरे मार्ग से बचाने का लिए धर्म का सहारा लिया गया था। मनुष्य अपने जीवन में अच्छाई, परोपकार और प्रेमभाव की भावनाओं को बनाए रखे इसीलिए धर्म का निर्माण किया गया। उसे पूजा-पाठ, नमाज़-रोजे, प्रार्थना आदि करने के लिए ज़ोर दिया गया, जिससे उनका मन शान्त रहे। सभी धर्मों ने कुछ बातों पर विशेष रूप से ज़ोर दिया है। उसके अनुसार मनुष्य, मनुष्य मात्र से प्रेम करे, सबके साथ मिलकर रहे, सबका कल्याण करे इत्यादि बातें कही गई हैं। किसी धर्म ने यह कभी नहीं कहा कि वह आपस में लड़े मरें। हमारा आस्था और विश्वास में कमज़ोरी हमारी संकीर्ण सोच का परिणाम है। अतः हमें धर्म के बारे में दोबारा से सोचना पड़ेगा।


Question 2:
अपने घर में या आस-पास दिखाई देने वाले किसी रिवाज या अंधविश्वास पर एक लेख लिखिए। 

ANSWER: 

मेरे घर में दादी उम्र में सबसे बड़ी हैं। जबसे हमने होश संभाला है। उन्हें विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों में विश्वास करते पाया है। यदि बिल्ली रास्ता काट जाए, तो वह उसे अपशुकन मानती हैं। घर से निकलते समय यदि कोई छिंक दे, तो वह उसे कुछ समय तक निकलने नहीं देती है। उन्हें इस विषय में कितना समझाया जाए कि यह दकियानुसी बातें है। परन्तु वह अपनी बात पर अडिग रहती हैं।  हमारे यहाँ रिवाज है कि यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती है, तो वह लहसुन-प्याज खाना, माँस खाना एवम् रंग-बिरंगे वस्त्र पहनना छोड़ देती है। इसके साथ ही वह भगवान भजन करती है और हर प्रकार के मनोरंजन से परहेज़ करती है। वह अपना खाना भी स्वयं पकाती है। शादी-ब्याह के शुभ कार्य में किसी के सामने नहीं आती है। मेरे दादाजी की मृत्यु 35 बरस की उम्र में हो गई थी। मेरी दादी तब मात्र 28 साल की थी। उन्होंने तबसे इन सभी सामाजिक रीति-रिवाजों का पालन किया। पिताजी ने बहुत चाहा की दादी इस प्रकार के अंधविश्वासों तथा रीति-रिवाजों से स्वयं को बाहर निकाले परन्तु उनके सभी प्रयास विफल रहें। आज वह 80 साल की हैं। उन्होंने अपने जीवन के 52 साल कठिन परिश्रम किया परन्तु जीवन के सुखों का भोग नहीं किया। उन्होंने अपना छोटा सा व्यवसाय आरंभ किया परन्तु आज भी कोई उनका चेहरा नहीं देख पाता क्योंकि वह सदैव बाहरी लोगों से घूंघट करती हैं। इस उम्र में उन्हें बदलना संभव नहीं है। परन्तु मुझे बहुत दुख होता है, जब दादी के विषय में सोचता हूँ। इस प्रकार के रीति-रिवाजों ने उनके हृदय में इतनी गहरी पैठ बनाई हुई थी कि उन्होंने अपनी जिंदगी भी इसमें झोंक दी। ऐसी कितनी ही औरतें होगीं, जो इस प्रकार के रिवाज़ों और अंधविश्वासों की भेंट चढ़ जाती हैं। काश की हम उनके लिए कुछ कर पाते।